राग दरबारी (उपन्यास) : श्रीलाल शुक्ल
दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया।
दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया। रुप्पन बाबू ने बैठते ही कहा, "रामाधीन के यहाँ लाल स्याही से लिखी हुई चिट्ठी आयी है। डाकुओं ने पाँच हजार रुपया माँगा है। लिखा है अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर.....।"
दरोगाजी मुस्कुराकर बोले, "यह तो साहब बड़ी ज्यादती है। कहाँ तो पहले डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे।"
रुप्पन बाबू ने कहा, "जी हाँ वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गयी।"
दरोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"
रुप्पन बाबू बोले, "पिताजी भी यही कहते हैं।"
"वे क्या कहते हैं?" "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"
"......यही कि पूरा साम्यवाद है।"
दोनों हँसे। रुप्पन बाबू ने कहा, "नहीं। मैं मजाक नहीं करता। रामाधीन के यहाँ सचमुच ही ऐसी चिट्ठी आयी है। पिताजी ने मुझे इसीलिए भेजा है। वे कहते हैं कि रामाधीन हमारा विरोधी हुआ तो क्या हुआ, उसे इस तरह न सताया जाये।"
"बहुत अच्छी बात कहते हैं। जिससे बताईये उससे कह दूँ।"
रुप्पन बाबू ने अपनी गढ़े में धँसी हुई आँखों को सिकोड़कर दरोगाजी की ओर देखा। दरोगाजी ने भी उन्हें घूरकर देखा और मुस्कुरा दिये। बोले, "घबराईये नहीं, मेरे यहाँ होते हुए डाका नहीं पड़ेगा।"
रुप्पन बाबू धीरे से बोले, "सो तो मैं जानता हूँ। यह चिट्ठी जाली है। जरा अपने सिपाहियों से भी पुछवा लीजिए। शायद उन्हीं में से किसी ने लिख मारी हो।"
"ऐसा नहीं हो सकता। मेरे सिपाही लिखना नहीं जानते। एकाध हैं जो दस्तखत भर करते हैं।"
रुप्पन बाबू कुछ और कहना चाहते थे, तब तक दरोगाजी ने कहा, "जल्दी क्या है! अभी रामाधीन को रिपोर्ट लिखाने दीजिए....चिट्ठी तो सामने आये।"
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दरोगाजी ने फ़िर कुछ सोचकर कहा, "सच पूछिए तो बताऊँ। मुझे तो इसका संबंध शिक्षा-विभाग से जान पड़ता है।"
"कैसे?"
"और शिक्षा-विभाग से भी क्या आपके कॉलिज से जान पड़ता है।"
रुप्पन बाबू बुरा मान गये, "आप तो मेरे कॉलिज के पीछे पड़े हैं।"